क्या महिलाओं की स्थिति आज भी उसी हाशिए पर है…
प्रभात संवाद, 8 मार्च, जयपुर। मुझसे जब एक महिला विद्यार्थी द्वारा कुछ प्रश्न किए गए, मैं उन्हें सुन निशब्द हो विचारों की ऊहापोह में खो सी गई । इनके उत्तर संभवतया हर महिला अपने जीवन में ढूँढने का प्रयास करती है, मगर सदियों से वो उत्तर मिल ही नहीं पा रहे। उसके प्रश्न शुरू होते है की जब यह सर्वविदित हो चुका है की यदि महिलाओं को समुचित अवसर एवं संसाधन प्राप्त हो तो महिलाये हर चुनौती का सामना करने में सक्षम है, उसकी योग्यता एवं क्षमता पुरुष वर्ग के समान है, फिर आज भी स्थितियाँ क्यों नहीं बदल पाई । शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला, माध्यमिक- उच्च माध्यमिक-उच्च शिक्षा के परीक्षा परिणाम भी महिला वर्ग की विद्यार्थियों के परिश्रम एवं महत्वाकांक्षाओ को उजागर करते है। किन्तु उसके बाद क्या, जब उस परिश्रम को सफलता के मापदंड पर मापने का समय आता है, तब कितनी महिलाओं को वो अवसर मिल पाता हैं। यदि मिल भी जाए, और सफल हो भी जाए, उसे और उन्नत करने के अवसरों मे क्या केवल उसकी मंशा को ही प्राथमिकता दी जाती है। जब बात विवाह की आती है तब कमोबेश आज भी महिला उसी स्थान पर क्यों खड़ी है । विवाह के समय, विवाह पश्चात क्यों उसकी दूसरी पारी शुरू हो जाती है जहां सिर्फ उसके त्याग और समर्पण के मापदंड से ही उसकी क्षमता और सफलता का आँकलन किया जाता है। क्यों उसे ऐसे कार्य या पेशे को चुनने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य किया जाता है जहां वो परिवार और कार्य के मध्य संतुलन बना सके। क्या इस संतुलन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर डालना उचित है। जब विवाह दो व्यक्तियों और परिवारों की सहमति से हुआ, क्यों सभी ऐसी जिम्मेदारिया जहां त्याग की आवशकता हो महिला के ऊपर ही लाद दी गई । क्यों जब कुछ भी नकारात्मक हो तो प्रथम दृष्ट्या महिला को ही आरोपी की तरह देखा जाता है । क्या पुरुष वर्ग अपनी जिम्मेदारियों को पूर्णतया निभा रहा है, फिर आक्षेप और उम्मीद की निगाहें सिर्फ महिलाओं पर ही क्यों ।
मेरे विचारों ने एक कहानी का रूप ले लिया । कहानी की शुरुआत हुई आदिमानव से जहां सभी घुमंतू एक झुंड मे रहकर उत्तरजीविता की जंग लड़ रहे थे । फिर आग, खेती की पहचान हुई, कई विकास के चरण आए और वो एक क्षेत्र मे ही अधिक स्थायित्व का जीवन यापन करने लगे । संसाधनों की एक ही क्षेत्र मे उपलबद्धता की सीमितता ने उन्हे दूर होने को विवश कर दिया । शायद ही उस समय तक कोई पुरुष स्त्री वर्चस्व की लड़ाई रही हो । कई समुदाय बने कहीं पुरुष कहीं महिलायें नेत्रत्व कर रही थी । जब उत्तरजीविता की जंग से स्थायित्व की और उन्मुख हुए तब व्यवस्थित मानवीय जीवन के लिए कुछ नियमों और आदर्शों की आवशयकता हुई । दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आए प्रथम नेत्रत्व कौन करेगा अर्थात इस व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारियों को निभाने हेतु कुछ अधिकार किसी को दिए जाने पड़ेंगे । द्वितीय यह की जो झुंड मे सदा साथ रहते थे अब परिवार नामक संस्था बनाकर अलग स्थान पर रहेंगे, उनका विभाजन किस प्रकार होगा । एक महापंचायत जैसी सभा का आयोजन हुआ जिसमे सभी समुदायों ने भाग लिया । पहले प्रश्न के लिए पुरुष और महिला प्रतिनिधियों ने अपने अपने तर्क प्रस्तुत किए और अपनी विशेषताओं से अवगत करवाया । पुरुष वर्ग के प्रतिनिधि ने कहा की वह शारीरिक रूप से अधिक मजबूत है, क्योंकि उत्तरजीविता की जंग सदैव संग चलती रहेगी इसलिए नेत्रत्वकर्ता की प्राथमिकता अपने समुदाय और परिवार की सुरक्षा होगी । महिला प्रतिनिधि ने कहा की लड़ना और हराना तो उसे भी आता है वह भी सुरक्षा की जिम्मेदारी ले सकती है साथ ही उसमे करुणा, दया, और प्रेम की भावनाओं का समावेश अधिक होने के कारण व्यवस्थित मानवीय जीवन मे मानवता का स्थान सदा सुनिश्चित हो सकेगा । पुरुष वर्ग की तरफ से आक्षेप आया की महिला चाहे जितनी मजबूत होने की कोशिश कर ले किन्तु उसकी शारीरिक संरचना मे ही कुछ ऐसे तत्व है जिनके कारण इस मुकाबले मे वो पुरुष से कम ही रहेगी, मासिक धर्म – गर्भ धारण इन्हे चाह कर भी अनदेखा नहीं कर सकती है, वह सदैव एक भांति की ऊर्जा, शक्ति और सामर्थ्य के साथ नहीं जी सकती जैसे पुरुषों के साथ ऐसी विडम्बना नहीं है । महिला वर्ग से भी आवाज आई क्या इसे हमारी कमजोरी समझा जाएगा इसमे हमारा तो कोई दोष नहीं है । पुरुष वर्ग ने कहा ये तुम्हारी नियति है । और दोनों पक्ष एक तीक्ष्ण आरोप प्रत्यारोप के साथ बहस करने लगे । तब एक महिला ने अपनी आवाज बुलंद कर कहा की इसका अर्थ क्यों नहीं ये निकाला जाए की प्रकृति की यही कामना रही होगी की महिला और पुरुष वर्ग दोनों मिलकर नेत्रत्व प्रदान करें और सहअस्तित्व के लिए सह प्रयास करे जाए। प्रश्न का उत्तर किसी पुरुष या महिला को चुनना ही क्यों है, जैसी स्थिति बने जहां जब जो अधिक समर्थ और सक्षम हो वो ही ये जिम्मेदारी ले । बिना किसी द्वेग के दोनों को ही समान अवसर और अधिकार प्रदान किए जाए । कुछ समय के लिए सन्नाटा छा गया । सब एक दूसरे की और देखने लगे मानो समस्या का समाधान हो गया हो । इतने मे ही एक पुरुष वर्ग से भी आवाज आई की क्या फिर ये हमेशा के लिए एक संघर्ष का कारण नहीं बनेगा, कहीं इस वर्चस्व के संघर्ष मे मानव के ही दो समूह ना बन जाए, जो मानव अपनी उत्तरजीवितता के लिए लड़ रहा है, अधिकार और उतरदायितवों की अनिश्चितता मानव – मानव के मध्य का युद्ध ना हो जाए । एक बार फिर सन्नाटा। फिर से तर्क वितर्कों की गूंज हो गई । कोई निष्कर्ष नहीं निकलने पर पहले द्वितीय प्रश्न का हल खोजे जाने के प्रयास होने लगे । मानवीय जीवन की निरन्तरता हेतु एक आयु पश्चात दो भिन्न समुदाय जो आगे से परिवार कहलाएंगे के महिला पुरुष का संयोग तो अवश्यमभी है, भिन्न परिवार भिन्न स्थान पर पहले से ही है फिर उन्हे साथ मे एक साथ रखा जाना भी संभव नहीं है । इसका अर्थ हुआ की महिला या पुरुष मे से ही किसी एक को त्याग कर दूसरे परिवार के संग रहना होगा । फिर से बहस मे एक विराम चिन्ह आ गया क्योंकि प्रश्न महिला या पुरुष कौन पर आ गया । इस बार दोनों ही अपने परिवार को छोड़ने को राजी नहीं । और फिर से बहस शुरू । परिवार की सुरक्षा, धनार्जन, पारिवारिक सद्भावना, सहयोग की भावना सभी मुद्दों पर विचार विमर्श हुआ । कभी महिला वर्ग कभी पुरुष वर्ग का पलड़ा भारी लगा । फिर से वही सब बातें । समस्या विकट रूप ले लेती है, हल किसी को नहीं सूझ रहा क्योंकि किसी बात पर सहमति ही नहीं बन रही थी कोई झुकने को तैयार नहीं । फिर एक आवाज आई यदि आज कुछ निश्चय नहीं हुआ तो ये लड़ाई सदा हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएगी इसलिए अब बारी त्याग और समर्पण की है, कौन इस गृह युद्ध को समाप्त करने के लिए अपने अधिकारों का त्याग करने को तैयार है । सबकी नजरें महिला पक्ष की और देखने लगी। फिर सन्नाटा छा गया, कोई बोलने की हिम्मत ना जुटा सका सब चुप। फिर महिला प्रतिनिधि ने कहा जब प्रकृति ने नवजीवन का माध्यम महिला को चुना क्योंकि वही उस दर्द को सहन कर सकती है, सहनशीलता की परीक्षा मे पुरुष शायद ही उतने सफल हो पाए इसलिए आज यदि मानवीय जीवन को सुचारु बनाए रखने के लिए ये त्याग अतिआवश्यक है तो वो करेगी किन्तु उसकी कुछ शर्ते होंगी । फिर क्या था एक सहमति बन गई । सामान्यतया पुरुष नेत्रत्वकर्ता की भूमिका निभाएगा। सुरक्षा की जिम्मेदारी पुरुष वर्ग लेगा, कठिन शारीरिक श्रम से जुड़े कार्य पुरुष वर्ग के जिम्मे होगे, परिवार से दूर रहकर यदि कार्य करने की आवश्यकता हुई तो पुरुष प्राथमिक रूप से चुना जाएगा, परिवार का पालन पोषण उसके जिम्मे होगा । परिवार का नेत्रत्व पुरुष करेगा इस हेतु उसे परिवार का मुखिया बनाकर अधिकार दिए जाएंगे । महिला वर्ग ने जिस परिवार मे जन्म लिया उसे विवाह पश्चात उसे छोड़कर पुरुष के परिवार संग रहना होगा तथा पारिवारिक व्यवस्था बनाए रखने मे पुरुष का सहयोग करना होगा । जो कार्य स्थानीय रहकर किए जा सकते है उन्हे महिला द्वारा किया जाएगा । शिशु पालन का दायित्व उस पर होगा । महिला पक्ष की तरफ से जो शर्ते थी वो थी की इस व्यवस्था के कारण महिला का स्थान पुरुष से कम नहीं होगा । समाज मे उसे भी समान सम्मान और निर्णय की स्वतंत्रता होगी। पुरुष के अधीन नहीं अपितु सहयोगिनी की भांति उसे समझा जाएगा । ज्ञान प्राप्ति पर समान अधिकार होगा । यदि कोई महिला स्वेच्छा से इस पथ का अनुसरण ना करना चाहे तो उसे बाध्य नहीं किया जाएगा ये बस एक सामान्य व्यवस्था होगी, जब भी पुरुष वर्ग से कोई सक्षम व्यक्ति ना हो तो अधिकार और उत्तरदायित्व महिलाओं पर होंगे । इस त्याग का पुरुष वर्ग सदैव ऋणी होगा, समय आने पर उसे इसका ऋण भी चुकाना होगा।
समय बीतता गया, शांतिपूर्ण मानवीय सभ्यता विकास के चरणों को पार करती गई । परन्तु शक्ति और सत्ता का मद ऐसा होता है कि कोई उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता है । पुरुष वर्ग भी उसी मद में मदहोश हो गया । क्योंकि अब ये अधिकार योग्यता पर नहीं पूर्णतया जन्मजात हो गए, भले ही वो उत्तरदायित्वों को अनदेखा करे, वह सक्षम नहीं हो। जब भी ऐसी स्थिति आती है सत्ताधारी वर्ग अन्य वर्गों का शोषण करने का कोई अवसर नहीं चूकता । हुआ भी पुरुष प्रधान वर्ग महिला वर्ग की सभी शर्तों को भूल उसके त्याग को भूलकर उसे हाशिए पर लाने को आतुर हो गया । सहयोगिनी से वो अब दासी बन गई । सबसे पहले उसके ज्ञान प्राप्ति और शिक्षा के अवसरों को समाप्त कर दिया जिससे वो अपने अधिकारों और सम्मान की बाते ही नहीं जान पाए। उससे इस भांति व्यवहार किया गया मानो उसे प्रकृति ने मस्तिष्क नाम का अंग दिया ही नहीं है। कठपुतली की भांति कभी नचवाया तो कभी शीशे में कैद आत्मा की तरह घर की चारदीवारी को ही जेल बना उसे कैद कर दिया गया । और डराया गया कि घर से बाहर जाते ही कोई दानव रूप में तुम्हारे साथ अनुचित कर सकता है । बस ये नहीं बोला वो स्वयं ही तो दानव रूप है। महिलाओं के मन मस्तिष्क में ऐसी भावना भर दी कि महिला स्वयं से ही नफरत करने लगी, महिला के रूप में जीना शापित जीवन की भांति हो गया । महिला स्वयं को अबला और पुरुष वर्ग पर निर्भर मानने लगी। उसकी यही सोच पीढी दर पीढी स्वयं महिला द्वारा ही प्रेषित होने लगी । बस पुरुष वर्ग का काम हो गया । यदा कदा फिर भी कई महिलाओं ने साहस दिखाया इस भ्रांति को दूर करने का प्रयास किया गया, महिला को उसकी वास्तविक शक्ति का अहसास करवाया गया किन्तु किसी झूठ को भी अगर सौ बार बोला जाए तो सच लगता है यहां तो ये बाते कई सदियों से कही जाती रही। धार्मिक और पौराणिक कहानियों तक में महिला को अपमान का ही भागी बनाया।
उतार चढ़ाव की स्थितियां बनती रही मगर इस कटु सत्य से इनकार न किया जा सका कि वक्त के साथ महिला की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। जिस उद्देश्य के लिए ये त्याग किया गया था, उसका तो अस्तित्व ही नहीं रहा । परिवारों में कलह, विभाजन की गूंज सुनाई देने लगी। भले ही मुखिया की भूमिका में पुरुष वर्ग था किन्तु इसका ठिकरा भी पूर्णतया महिला पर ही फोड़ा गया । जिस पुरुष वर्ग ने पूरे मानव जाति का बीड़ा लेने की जिम्मेदारी के साथ इतने अधिकार लिए आज उससे एक परिवार भी नहीं सम्भल पाया, स्वयं के माता पिता भी एक उम्र के बाद बोझ लगने लगे। परिवार एकल परिवार में तब्दील हो गए और जब उतना भी नहीं संभाला गया तो विवाह जैसी संस्था रीति को मजाक बना दिया गया और स्त्री को बाजारू और बिकाऊ बना दिया । पुरुष प्रधान समाज ने अंततः क्या हासिल किया कैसी दुनिया का निर्माण कर दिया उसने , परिवार में सत्ता, देश में सत्ता और विश्व में सत्ता बस इस सत्ता के लोभ में कितने खून बहाए, कितने अपने लोगों को जला दिया कितनी लाशें अपनी मुनासिब जगह तक न पा सकी । खून खराबा विश्व, देश में हर जगह दिखता रहा और घर में कैद बच्चे और महिलाएं अपनी नियति का मातम बनाती रही । क्या इन्हीं सब दृश्यों के साक्षी बनने को महिला से त्याग लिया गया था, क्या यही उस पुरुष की वाणी का मोल था । क्या अब महिला पुरुष संघर्ष नहीं रहा फिर क्या हासिल किया इस समाज ने । जब पुरुष अब अपनी जिम्मेदारियों में असफल रहा है तो क्यों नहीं उससे उस अधिकार और शक्ति को भी ले लेना चाहिए ।
इतनी विषमताओं के बावजूद , अवसरों को उपलब्धता की कमी के बावजूद, महिला कोशिश करती रही इस जंग में सबसे ज्यादा उन महिलाओं से लड़ना पड़ा जिन्होंने पुरुष प्रधान मानसिकता को ही अटल सत्य मान लिया । जिस महिला को किसी घर को अपना घर कहने तक का हक ये समाज नहीं दे पाया आज कई महिलाएं पति एवं स्वयं के माता पिता का भी सम्मान और देखभाल कर रही है | महिला वर्ग फिर से खुद को परिभाषित और सिद्ध कर रही है । क्या फिर से शायद उस महापंचायत की दरकार नहीं । निसंदेह ऐसा कुछ संभव हो तो इस बार महिला पुरुष वर्ग के झांसे में नहीं आएगी, अपने भविष्य को किसी पुरुष के हाथों में नहीं जाने देगी । वो खुद उस भूमिका में होगी जहां वो नेत्री और सुनहरे भविष्य की निर्माण कर्ता होगी । उसके स्वपन उससे संबंधित होंगे, उसकी उड़ान किसी और के परो पर नहीं उसके स्वयं के परो पर होगी । क्या वक्त नहीं आ गया है जिस समाज ने पुरुष वर्ग को आजमा कर देख लिया, उसके कर्मों के दुष्परिणाम भोग लिए प्रकृति की सुंदरता की जगह उसकी आक्रामकता और अहंकार ने युद्ध के मैदान बना दिए, घरों की जगह महिला की आबरू के सौदे होने के कोठे बना दिए, पैसों को सरताज बना दिया, जमीन-जल-वायु सब बिकाऊ बना दी फिर भी मन ना भरा तो मनुष्य मनुष्य के हाथों मे बिक गया । क्या ये समाज एक बार महिलों के हाथों मे नेत्रत्व की बागडोर नहीं देकर देख सकता है, एक बार महिला प्रधान समाज की कल्पना नहीं कर सकता है, निसन्देह वह पुरुष के साथ वो ज्यादती नहीं करेगी जो पुरुष ने महिलाओ के साथ की थी । क्या पता कुछ सुखद और सुंदर दुनिया इसी धरती पर दिख जाए । क्या पता इस बर सच मे एक व्यस्थित, स्थायी और उन्नत मानव सभ्यता का विकास हो । क्यों नहीं इस बात पर कोई विचार हो ?
डॉ. सरोज जाखड़
समाजशास्त्री
यह लेखक के अपने विचार हैं