सप्ताह में 90 घंटे कार्य का सामाजिक व्यवस्था पर प्रभाव, कितना सही


प्रभात संवाद, 30 जनवरी , जयपुर। वर्तमान समय में सभी राजनीतिक दल व उद्योगपति विकसित भारत 2047 का स्वप्न अपनी आंखों में पाल रहे हैं। निसंदेह एक भारतीय होने के नाते यह प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी भी है कि वह अपने देश के विकास में अपना योगदान प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रदान करें ,लेकिन एक समाजशास्त्री होने के नाते जब हमने 90 घंटे कार्य तथा सामाजिक व्यवस्था में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया तो पाया कि सप्ताह में 90 घंटे कार्य करने से सामाजिक संबंधों में विघटन ,मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, व तनावग्रस्त युवा पीढ़ी जैसी समस्याएं उत्पन्न होती प्रतीत हो रही है । हमारा भारत वह देश है जहां रूपयों से ज्यादा सामाजिक प्रस्थिति व संबंधों को महत्व दिया जाता है। केवल कार्य समय बढ़ाने से उत्पादन व आर्थिक व्यवस्था का विकास नहीं होगा बल्कि कम समय में नीति पूर्ण कार्य योजनाओं का निर्माण आवश्यक है जब इस विषय पर अर्थशास्त्रियों से राय ली गई, तो उनका मानना था कि उत्पादन क्षमता कार्यकर्ता के कार्य स्थल के वातावरण के साथ आप मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है यदि श्रमिक अपनी नींद पूरी नहीं करेगा तो वह दूसरे दिन केवल टाइम पास करेगा ।लेकिन यदि एक श्रमिक अपनी थकान को पूर्णतया उतार कर कार्य स्थल पर आता है तो वह पूरे समय के आधे समय में कार्य पूर्ण कर लेता है ।कर्मचारी सहायता कार्यक्रम सेवा प्रदाता 1to1help की ‘स्टेट ऑफ इमोशनल वेल-बीइंग रिपोर्ट 2024’ (State of Emotional Well-being Report 2024) रिपोर्ट में पाया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं 15% तक बढ़ गई हैं। यह काउंसेलिंग या परामर्श (Counselling) के लिए आने वाले कर्मचारियों के लिए शीर्ष दो चिंताओं में से एक बन गई है। कार्यस्थल मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों पर रिपोर्ट जनवरी से नवंबर 2024 तक 83,000 से अधिक परामर्श सत्रों, 12,000 वैकल्पिक जांच और 42,000 आकलन के डेटासेट पर आधारित थी। यह कॉर्पोरेट कर्मचारियों के बीच परामर्श सेवाओं के उपयोग में वृद्धि को दर्शाता है। इसी संदर्भ में देखा गया कि जिन संस्थाओं में रविवार के साथ शनिवार की छुट्टी होती है वहां सामाजिक, व्यवसायिक दोनों संबंधों में सुधार है क्योंकि यह सत्य है कि मानव बिना समाज की नहीं रह सकता लेकिन हमने पूंजी व विकास के नाम पर मशीनीकृत व्यक्तित्व का निर्माण कर दिया है। जिनमें मानवहीनता ,मूल्यहीनता विद्यमान होती जा रही है और समाज विघटन की और अग्रसर हो रहा है प्राचीन समय में भौतिक साधन नहीं थे लेकिन प्यार स्नेह और सभ्यता भरपूर थी अब उत्पादन, पूंजी व भौतिकवादी सभी सुविधाएं मौजूद हैं लेकिन जीवन में शांति, सुकून नहीं है। एक भी ऐसा रिश्ता नहीं है जिससे हम अपने मन की बात कह सके और वह हमारे दर्द को समझ सके। बस सब एक बनावटी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक वह अपनी संस्कृति ,अपनी परंपराओं का सम्मान नहीं करेगा। एकांकी परिवारों ने बाल विकास विकास को तो महिला सशक्तिकरण में तलाक की दर में वृद्धि कर दी । प्रश्न यह है कि क्या हम विकास के नाम पर भावनहीन मनुष्य का निर्माण कर रहे हैं।

डाॅ. सरोज जाखड
समाजशास्त्री

यह लेखक के अपने विचार हैं

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