जयपुर लिटेरचर फेस्टिवल : स्क्रीन कल्चर पर भारी बुक लवर की दुनिया
प्रभात संवाद, 1 फ़रवरी, जयपुर । ग्लोबल दुनिया में भले ही आज स्क्रीन कल्चर का बोलवाला है, लेकिन पढने वालों का पुस्तकों के प्रति प्रेम कम नहीं हो रहा है। आलोचक भले ही बुक्का फाड़कर कितना भी चिल्लाएं कि अब पुस्तक पढने वाले कम हो रहे हैं और स्क्रीन पर पढने वाले पुस्तक पढने वालों के मुकाबले कई गुना अधिक हैं। यह बात सीधे तौर पर तो सही लगती है,लेकिन जब पढ़ाई की दुनिया में खोजबीन की जाती है तो पता चलता है कि आज भी पुस्तक प्रेमियों की संख्या उतनी ही है जितनी कि पहले थी। अलबत्ता आबादी के आधार पर थोड़ा सा अंतर जरूर नजर आता है, लेकिन यह परंपरा सदियों से कायम है कि जो चीज आराम से सर्वसुलभ हो हम उसकी तरफ सबसे पहले भागते हैं। यही कारण है कि पुस्तकों को पढने वाले कम स्क्रीन पर लिखा हुआ देखने वाले अधिक नजर आते हैं।
विश्व पुस्तक मेला और देशभर में होने वाले लिटेरचर फेस्टिवल आज ऐसे दो समारोह बन गए हैं जहां आने वाले पुस्तक प्रेमियों की संख्या हर वर्ष बढ़ती जा रही है। विश्व पुस्तक मेला दिल्ली के प्रगति मैदान में गत 50 वर्षों से लगता आ रहा है। यहां पर आने वाले पुस्तक प्रेमियों की संख्या और उनके द्वारा खरीदी जाने वाली पुस्तकों की संख्या में साल दर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। पुस्तकें हमें सिर्फ ज्ञान ही नहीं देती बल्कि यह समाज को एक संदेश देती हैं। इसी संदेश से हम सामाजिक जीवन, वैचारिक एकता,समरसता,भाई-बंधुत्व तथा राष्ट्रीय प्रेम को अपने अंदर समाहित करके ज्ञान की त्रिवेणी को प्रवाहित रखते हैं। पुस्तक मेले में जाना सिर्फ एक मेले में जाकर मनोरंजन करना भर नहीं है, मेले से जब हम वापस आते हैं तो हमारे अंदर ज्ञान की एक ऊर्जा तरंगित रहती है। यह ऊर्जा धर्म, देशप्रेम, परिवार,राजनीति जीवन के संगम के रूप में हमारे लिए उल्लास का कारण बनती है। विश्व पुस्तक मेला हर वर्ष एक खास विचार को लेकर होता है। इस वर्ष इसकी थीम रिपब्लिक एट दी रेट 75 है। इस थीम को रखने के पीछे कारण है भारत अपने गणतंत्र बनने के 75 वर्ष का उत्सव मना रहा है। यह थीम मजबूत भारत और राष्ट्र निर्माण में प्रगति को समर्पित है। थीम का स्लोगन है हम भारत के लोग।
जब हम इस थीम को देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि पुस्तक मेले किस तरह से हमारी राष्ट्रीयता-सामाजिकता से सरोकार रखते हैं। दूसरी तरफ जयपुर का लिटेरचर फेस्टिवल हो या फिर लखनऊ में होने वाला। हर कहीं पुस्तक प्रेमियों को लेखकों,कवियों,व्यंग्यकारों,कहानीकारों तथा दूसरे साहित्यकारों से रूबरू होते हुए देखा जा सकता है। जयपुर का साहित्य महोत्सव वर्ष 2006 से लगातार होता आ रहा है। यहां तक की कोरोना जैसी महामारी का संकट था तब भी यह आयोजित किया गया। दीगर है कि हाइब्रिड अवतार में यह ऑनलाइन भी हुआ और सीमाओं को लांघकर हुआ। इसके बाद भी जब यह कहा जाता है कि पुस्तक पढऩे वालों की संख्या कम हो रही है तो ऐसा लगता है कि यह कम होती संख्या का आरोप एक साजिश का हिस्सा है। इस कम होती संख्या पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
आज देश के हर कोने में या तो पुस्तकों के मेले लग रहे हैं या फिर साहित्योत्सव का आयोजन होता है। यदि पुस्तक पढऩे वाले ही नहीं है तो यहां पर प्रकाशकों की संख्या हर वर्ष बढ़ती क्यों जा रही है? इन मेलों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए पुस्तकें होती है तो धर्म की पुस्तकों के प्रकाशकों का भी एक बड़ा हिस्सा नजर आता है। हाल में ही महाकुंभ में गीता प्रेस के शिविर में जब आग लगी तो पता चला कि वहां पर उसकी कितनी बड़ी भागीदारी थी। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वर्ष 2023 में शताब्दी समारोह में गए थे और उन्होंने इसे मंदिर से कम नहीं कहा था। गीता प्रेस ही क्यों दूसरे धर्मों की पुस्तकों का आज प्रचार-प्रसार करने वालों से कम खरीददार नहीं हैं। शहरों में प्रकाशकों की बढ़ती संख्या भी बताती है कि पुस्तकें बिक रही हैं और लोग उन्हें सामाजिक समारोह में उपहार की तरह आदान-प्रदान के लिए प्राथमिकता दे रहे है। यह बात जरूर कही जा सकती है कि पहले जो पुस्तक पहले बेस्टसेलर बनने के लिए हजारों की संख्या में छपती थी अब उसकी संख्या सीमित हो गई है। इसके लिए भी हर प्रकाशक का अपना तर्क है। कहना ना होगा कि लेखक को अधिक रायल्टी या पुस्तकें नहीं देनी पड़े इसके लिए संख्या कम ही बताई जाती है। यदि पुस्तकों की संख्या तय हो तो उसे लेखक के साथ शेयर क्यों नहीं किया जाता। यह बात भी कम नहीं है कि कितने ही लेखक हैं जिनकी पुस्तकों के साल-दो साल में ही तीन-तीन संस्करण छप जाते हैं। प्रकाशकों की इस बात को यह संस्करण कितना सही ठहराते हैं कि आज पुस्तक खरीदने वाले नहीं हैं? अगर पुस्तकें बिक नहीं रही हैं तो इन संस्करणों का क्या हो रहा है?
पुस्तकों के विमोचन समारोह, समाचार पत्रों में समीक्षाओं के लिए स्थान का आरक्षण,साहित्यक पृष्ठों पर पुस्तकों के अंश, कहानियां,व्यंग्य,कविताएं क्या नहीं बताती कि पुस्तकों के प्रेमी अभी भी उतनी ही शिद्दत से उन्हें खरीद रहे हैं जिस शिद्दत से स्क्रीन क्रांति से पहले खरीदते थे। उत्तराखंड में तो लेखक गांव की स्थापना की गई है जहां पर लेखक जाकर अपनी रचना को आकार दे सकता है। आज भी ऐसे साहित्यकार कम नहीं हैं जो कमलेश्वर की तर्ज पर एकांत में जाकर रचनाक्रम में रत रहते हैं। फेसबुक,व्हाटसअप हो या फिर दूसरी स्क्रीन वहां पर जो पढ़ा जा रहा है वह कहां से आ रहा है? पुस्तकों के अंश या किसी नई रचना को पाठकों के बीच ले जाने के लिए,लोकप्रिय बनाने के लिए, अपनी पहचान बनाने के लिए यदि इन माध्यमों का उपयोग हो रहा है तो कोई बजह नजर नहीं आती इस आरोप में कि आज पुस्तक पढऩे वाले कम हो रहे हैं। ऑनलाइन प्लेटफार्म पर जो रचनाएं पढ़ी जाती है उनके डाउनलोड की संख्या इतनी अधिक होती है कि लेखक अपनी रचना को पुस्तकाकार लाने के लिए उत्साहित हो जाता है। फिर पुस्तकें छपती हैं तो उन्हें नहीं बिकने की बात सिरे से समझ में नहीं आती।
पुस्तकों की दुनिया में एक बात जरूर मानी जा सकती है कि अब हार्डबाउंड से अधिक पेपरबैक संस्करण अधिक प्रचलित हैं। व्यापार कहें या फिर मानव की नीतिगत सोच कि वह हमेशा सस्ते की तरफ भागता है। यहां पर भी वही बात है,पर पुस्तक तो वही रहती है,अंतर आता है तो सिर्फ उसकी पैकिंग में। इससे बेहतर क्या होगा कि एक पाठक कम दाम में पेपरबैक के रूप में अधिक पुस्तकें खरीद ले। फिर पुस्तकों की पाठकों से मुहब्बत कम होना,कहना वैसा ही है जैसे जोर का झटका धीरे से देना।
मनोज वार्ष्णेय
लेखक एवं पत्रकार